छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद-काव्य की आत्मा

Authors

  • डा0 नगीना बानो Author

DOI:

https://doi.org/10.7492/dpvmmj98

Abstract

’प्रसाद’ ने काव्य की आत्मा का स्वतन्त्र विवेचन नही किया है, तथापि इतना स्पष्ट है कि वे रस को काव्य का प्राण तत्व मानते है इसीलिए उन्होने ’रस’ शीर्षक निबन्ध में अलंकार रीति, वक्रोक्ति और ध्वनि के ऐतिहासिक विकास का निरूपण करने के अनन्तर रस को ही प्रधान माना है।
’काव्य और कला’ शीर्षक निबन्ध में भी उन्होनें इस विषय में प्रसांगिक रूप से विचार किया है और रस एवं रीति की तुलना करते हुए अन्ततः रस को ही गौरव दिया हैं -’’काव्य में शुद्ध आत्मानुभूति की प्रधानता है या कौशलमयी आकारों या प्रयोगों की? काव्य में जो आत्मा की मौलिक अनुभूति की प्रेरणा वही सौन्दर्यमय और संकल्पात्मक होने के कारण अपनी श्रेय स्थिति में रमणीय आकार में प्रकट होती है वही आकार वर्णात्मक रचना-विन्यास में कौशलपूर्ण होने के कारण प्रेय भी होता है। रूप के आवरण में जो वस्तु सन्निहित है, 

Published

2011-2025

Issue

Section

Articles