भारतीय इतिहास में नारी: एक दृष्टीक्षेप
DOI:
https://doi.org/10.7492/7hw41v36Keywords:
प्राचीन, सम्मान, आदर्शात्मक, मर्यादायुक्त, समृद्धि, परिवर्तन, प्रतिनिधित्व, ऋग्वेद, उपनिषद, ब्रह्मविद्या, इतिहास, अग्निपुराणAbstract
समाज में विकास के स्तर को जानने के लिये सर्वप्रथम नारी की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। भारतीय नारी की पहचान भी कई वर्ग समूहों, विभिन्न जाति समूहों, धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों में होती है। भारतीय समाज में नारी को सृष्टि का प्रमुख आधार माना गया है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि जब एक बच्ची जन्म लेती है तो वह साबित करती है कि ईश्वर अभी मानव जाति से नाराज नहीं है। वहीं थामस फुलर का कथन है कि, 'मेरा बेटा तभी तक मेरा बेटा है जब तक उसकी पत्नी नहीं आ जाती, परन्तु मेरी बेटी ताउम्र बेटी रहेगी।' फिर भी समाज में नारी की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही समयान्तराल में उनमें अनेक परिवर्तन हुये। प्राचीन में भारतीय समाज में उनका सम्मान और आदर आदर्शात्मक और मर्यादायुक्त रहा। कन्या के रूप में, पत्नी के रूप में तथा माता के रूप में हिन्दू समाज व परिवार में 'श्री' व 'लक्ष्मी' के रूप में वह मनुष्य के जीवन में सुख और समृद्धि से दीप्त और पुंजित करने वाली कही गई।