हिंदी साहित्य में स्त्री रूप की यात्रा - भाग्या से भोग्या तक

Authors

  • 1. प्रा. एम. जी. ठाकरे , 2. प्रा. डॉ. प्रमोद गोकुळ पाटील Author

DOI:

https://doi.org/10.7492/cftgdf38

Keywords:

रंगमंच, आदिकाल, पूर्णत्व, विषकन्या, कामांधा, पवित्रता, जीवन-संगिनी, जीवन-रथ, स्त्रीवादी साहित्य, वैदिककाल एवं बसेरा

Abstract

हिंदी साहित्यकारों ने शुरुआती दौर में स्त्री के उपर होनेवाले अन्याय-अत्याचार का यथार्थ वर्णन किया है।  हिंदी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह दिखाई देता है कि, स्त्री किसी-न-किसी रूप में साहित्य के केंद्र में रहकर चित्रित होती रही है। मैथिलीशरण गुप्त की दृष्टि में स्त्री दीनता की प्रतिमूर्ति है। प्रसादयुग में आकर पुरुष ने स्त्री को पहचाना उनकी स्त्री केवल श्रद्धा है, जिसने अपना सर्वस्व, अपने जीवन के सभी सपने, अपने संकल्प अनुओं से दान कर दिए। वह श्रद्धेय है। दिनकर के युग तक आते-आते स्त्री स्वच्छंद, मुक्त, भोगी, अप्सरा बन गई, जिसका बसेरा न जाने कितनों की चाह में है, कितनों के आगोश में है।

            साहित्य में स्त्री-रूप-चित्रण की यात्रा आदर्श भारतीय रूप से होते हुए मुक्त जीवन तक पहुँची है। स्त्री सृष्टि की मूल है। पुरुष की जीवन-संगिनी है। वह माँ है, पत्नी है, प्रेयसी है, पुत्री है, देवी भी है और दानवी भी। स्त्री-शिक्षा, समानता के कानून और समानता के अधिकार प्राप्त कर स्त्रियों ने स्वैराचार का तांडव आरंभ किया है। यह एक प्रकार का प्रतिशोध है, जो स्त्री सालों से पुरुष के आधिपत्य में दबती आई थी, वह न्यायिक अधिकार पाकर मुक्त हुई है, जो साहित्य से अनछुई न रह सकी।

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Published

2011-2025