हिन्दी के जातीय कवि: विद्यापति
DOI:
https://doi.org/10.7492/qsvnp677Abstract
विद्यापति कीर्तिलता में सामाजिक और साहित्यिक परंपरा का समर्थन करते हैं तो पदावली में उन्हें तोड़ते हैं-राधाकृष्ण के मांसल, मादक तथा मुक्त श्रृंगार चित्रों के द्वारा। राधाकृष्ण के नाम पर सामाजिक मर्यादाओं की तोड़-फोड़ ठीक न मानकर बहुत से लोगों ने उन्हें भक्तकवि कह डाला है। हजारीप्रसाद द्विवेदी पदावली की चर्चा भक्तकवियों के प्रसंग में करते हैं। ‘हिन्दी साहित्य‘ के आदिकाल के अन्तर्गत वे कहते हैं- ‘‘इस पुस्तक के पदों ने आगे चलकर बंगाल, आसाम और उड़ीसा के वैष्णव भक्तों को प्रभावित किया और यह उन प्रदेशों के भक्त साहित्य में नई प्रेरणा और नई प्राणधारा संचारित करने में समर्थ हुई। इसीलिए पूर्वी प्रदेशों में सर्वत्र यह पुस्तक धर्मग्रन्थ की महिमा पा सकी।‘‘ वे भक्ति के प्रसंग में विद्यापति को ‘श्रृंगार रस के सिद्ध वाक्कवि‘ कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि श्रंृगार रस और भक्ति रस में मौलिक अन्तर नहीं है किन्तु कवि को पहले भक्त होना चाहिए। विद्यापति शैव थे अतः उन्हें वैष्णव कवि नहीं कहा जा सकता। पदावली में श्रृंगार के ऐसे इन्द्रियोत्तेजक चित्र खींचे गये हैं कि यदि उन्हें भक्ति काव्य कहा जायेगा तो श्रृंगार काव्य क्या होगा? जयदेव के ‘गीतगोविन्द‘ को इसी आधार पर श्रृंगारिक काव्य ही माना जाना चाहिए।