उषाकिरण खान की कहानियों में लोक, समाज और संघर्ष
DOI:
https://doi.org/10.7492/5ha2jd17Abstract
मैथिली और हिंदी भाषा-संस्कृति में समान विद्वत्ता और जुड़ाव रखने वाली वरिष्ठ कहानीकार उषाकिरण खान की रचनाशीलता ऐसे संक्रमण काल में सृजित होती हैं जब आधुनिकता के उतरोत्तर काल के आतंक से कहानी की भावभूमि में ग्रामीणता, देहातीपन और लोकगंध की अवधारणा गायब होनी शुरू हो गई थी। यहाँ तक कि कहानी की लोकधर्मिता में जनमन के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा था। मनुष्यता के सारे मानदंड एक सिरे से ध्वस्त किए जाने लगे थे। स्वाधीन भारत में जीते हुए निचले तबके के लोग धर्म और जाति के चक्कर में पड़कर जंगली जीवन जीने के लिए मजबूर हो गए थे। ऐसे समय में उषाकिरण खान जी समाज के समसामयिक परिप्रेक्ष्यों को अपनी रचनाओं में प्रश्नों के साथ चिह्नित करती हैं। एक तरह से कहा जाए तो ग्रामीण लेखन के क्रम में रेणु-नागार्जुन के बाद उषाकिरण खान रचनाओं में एक नए ढंग से लिखने का दायित्व उठाती हैं। अपने समाज और देश से जुड़ाव के साथ उनकी समस्याओं को आत्मसात करके लेखन के माध्यम से अपनी आवाज को प्रशासन तक पहुँचाने का काम करती हैं। वास्तव में, इनकी कहानियों में मानवीय मूल्यों का संरक्षण, जीवनी शक्ति और सामाजिक-सांस्कृतिक नवनिर्माण की उत्कट हलचल है। इस विषय पर नागार्जुन लिखते हैं- "लिखो, तो लिखने लगी। बाबा ने लिखने का आदेश देने के साथ-साथ यह अच्छे से समझा दिया कि लेखक और उसके पात्रों की भाषा अलग-अलग होनी चाहिए। लेखक जब लिखे तो हिंदी में लिखे, पात्र अपनी भाषा बोले। पात्र अपने परिवेश और वातावरण के हिसाब से बोलेगा। उषा जी ने इस सीख को गाँठ बाँध लिया और अपने कथा लोक में इसका निर्वाह किया।" उषाकिरण जी ने अपनी लेखनी का लोकपथ चुना और उसी पथ पर आजीवन सृजन-कार्य करती रहीं।