भारतीय संगीत वाद्य (प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल) के संदर्भ में
DOI:
https://doi.org/10.7492/xjat9165Abstract
मानव ने प्राचीनकाल से ही अभिव्यक्ति के लिए संगीत का प्रयोग किया है। आदिम सभ्यता के समय मानव द्वारा जिन वाद्ययन्त्रों का प्रयोग किया गया, वे अविकसित अवस्था में थे। आज के समय में जो वाद्य दिखाई देते हैं, वहाँ तक पहुँचने में वाद्यों का एक श्रृंखलाबद्ध इतिहास है। प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक काल के वाद्यों के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीनकाल के वाद्य पहले बहुत ही साधारण थे। समय के साथ उनमें क्लिष्टता तथा बजाने में कुशलता आई। प्रारम्भिक वाद्यों में सौन्दर्यात्मकता का अभाव था। उन वाद्यों की ध्वनियाँ तेज नादयुक्त तथा तीखी थीं, परन्तु धीरे-धीरे मानव ने अपनी बुद्धि के विकास के साथ वाद्यों की सामग्री बनाने के ढंग व बजाने के प्रयोग में परिवर्तन किया। वाद्य शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ 'वादनीय' या 'बजाने योग्य' है। संगीत दर्पण के लेखक दामोदर पण्डित के अनुसार, संगीत की उत्पत्ति ब्रह्मा से हुई। प्रागैतिहासिक काल से ही संगीत का प्रचलन रहा है। उस समय का मानव असंस्कृत तथा असभ्य था, परन्तु उसे संगीत व नृत्य से बहुत प्रेम था। प्रागैतिहासिक मानव वीणा वाद्य में तन्त्री के लिए ताड़ की पत्तियों के रेशे, घास तथा जानवरों की आँतों का प्रयोग करता था। वाद्यों के विकास के क्रम में विचारकों का मानना है कि पहले ताल वाद्य, फिर तत् वाद्य के रूप में तीर कमान और फिर सुषिर वाद्य का आविष्कार सबसे अन्त में हुआ। जे. एफ. रोबोयम ने वाद्यों के क्रमिक विकास में तत् वाद्यों को सबसे प्राचीन, सुषिर वाद्यों को उसके पश्चात् के वाद्यों के विकास की अन्तिम प्रक्रिया के रूप में लिया है। पुरातत्त्व विज्ञान की खुदाइयों से प्रदर्शित होता है कि सुदूर 5000 ई. पूर्व में मनुष्य बाँसुरी, वीणा तथा विभिन्न प्रकार के ड्रम बजाने की कला से परिचित था। प्रारम्भिक तत् वाद्य तथा ड्रम जैसे वाद्य के चिह्न सिन्धु सभ्यता से मिलते हैं। प्राचीन सभ्यता के कुछ चित्रों में चित्रलेख तत् वाद्य की अविकसित अवस्था का प्रतिनिधित्व करते मिलते हैं।


